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Wednesday, June 20, 2018

Growth And Dovelopment | वृद्धि और विकास

Growth And Development | वृद्धि और विकास


वृद्धि एवं विकास का अर्थ

वृद्धि और विकास को एक ही मान लिया जाता है। जबकि दोनों में पर्याप्त अंतर है। इससे संबंधित काफी प्रश्न परीक्षाओं में पूछे जाते रहे हैं। लेकिन सरल विषय होने के कारण परीक्षार्थी इसमें लापरवाही कर जाते हैं और इससे उनका लक्ष्य उनसे दूर हो जाता है। यहां वृद्धि और विकास के बारे में सब कुछ बताया जा रहा है जो कि परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है। उम्मीद है आपको यह पसंद आएगा और उपयोगी भी साबित होगा।

वृद्धि का अर्थ :-

वृद्धि का अर्थ शारीरिक वृद्धि से है ( Physical Growth ) । हम बच्चों को बड़ा होता देख सकते हैं। यानि शारीरिक अंगों का बड़ा और विकसित होना वृद्धि है। इससे उनके अंगों की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है। वृद्धि बच्चे के व्यवहार को भी प्रभावित करती है ।

वृद्धि की परिभाषा:-

हरबर्ट सोरेन्सन  :- शारीरिक अंगों में भार तथा आकार में वृद्धि होना है। ऐसी वृद्धि जिसको मापा जा सकता है।
फ्रैंक के अनुसार :-" शरीर के किसी विशेष पक्ष में जो परिवर्तन होता है, उसे वृद्धि कहते हैं । इस प्रकार से वृद्धि शरीर के विभिन्न अंगों के आकार में परिवर्तन के साथ साथ शरीर के लम्बाई, चौड़ाई ऊंचाई एवं भार (वजन) को व्यक्त करता है ।

बाल विकास का अर्थ (Child Dovelopment )

विकास का अर्थ गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक के होने वाले विभिन्न परिवर्तनों से है। विकास का कार्य गर्भावस्था से ही शुरू होता है और यह प्रक्रिया गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्थाओं इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता तक पहुँचती है। विकास एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है। वृद्धि एक समय के बाद रुक जाती है परन्तु विकास एक निरान्तर प्रक्रिया है।

बाल विकास की परिभाषा :-

स्किनर के शब्दो में :- विकास जीव और उसके वातावरण की अन्त: क्रिया का प्रतिफल है ।
हरलाक के शब्दो में :- " विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है । इसके बजाय, इसमें परिपक्वावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं । "
गेसेल के शब्दो में :- " विकास, प्रत्यय से अधिक है । इसे देखा, जाँचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं, शरीर अंक विशलेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है। इस सब में व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है ।

इस प्रकार से विकास के अंतर्गत मानसिक, समाजिक, संवेगत्मक तथा शरीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनों को शामिलि किया जाता है । इससे व्यक्ति की कार्य कुशलता एवं व्यवहार में प्रगति की जानकारी प्राप्त होती है ।
वृद्धि मात्रक परिवर्तनों को प्रकट करती है वहीं दूसरी ओर विकास गुणात्मक परिवर्तन को प्रकट करता है। इस प्रकार से वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया साथ साथ चलती है और वह एक दूसरे की पूरक है ।

वृद्धि एवं विकास में अन्तर
वृद्धि                                                                                                      विकास
वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परिवर्तन                                 विकास एक निरान्तर प्रक्रिया है ।
वृद्धि संकुचित है चूंकी वृद्धि की आधारण विकास की अवधारणा का ही एक भाग है । विकास वृद्धि की अपेक्षा अधिक व्यापक है।
वृद्धि का तात्पर्य मात्रक एवं परिणात्मक परिवर्तनों को प्रकट करता है विकास गुणात्मक परिवर्तनो को प्रकट करता है
वृद्धि निरंतर नहीं चलती और शिशुकाल के पश्चात धीमी पड़ जाती है विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है वह रुकती नहीं है ।

मानव विकास का अर्थ :

मानाव विकास की प्रक्रिया निरान्तर चलती रहती है यह कभी रुकती नहीं है । यह आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है |

मानव विकास की आवस्थाएँ :-

मानव विकास की प्रक्रिया निरान्तर चलती रहती है यह क्रम माता के गर्भावस्था से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है । यह कभी रुकती नहीं है ।

मानव विकास की आवस्था को निम्नलिखित भागों में बंटा गया है ।
1 गर्भावस्था - गर्भधारण से जन्म तक 
2 शैशवावस्था -जन्म से 5 वर्ष तक
3 बाल्यावस्था -5 वर्ष से 12 वर्ष तक
4 किशोरावस्था -12 वर्ष से 18 वर्ष तक
5 युवास्था -१8 वर्ष से 25 वर्ष तक
6 प्रौढ़ावस्था -25 वर्ष से 55 वर्ष तक
7 वृद्धा आवस्था - 55 वर्ष से मृत्यु तक

मानव विकास की आवस्थाओं  को लेकर भारतीय विद्वानो में एक मत नहीड्ड है ।
अधिकतर विद्वान मानव विकास को चार आवस्थाओं में बांटते हैं।

1 शैशवावस्था -जन्म से 5 वर्ष तक
2 बाल्यावस्था -6 वर्ष से 12 वर्ष तक
3 किशोरावस्था -12 वर्ष से 18 वर्ष तक
4 युवाआवस्था -18 वर्ष से मृत्यु तक

शिक्षा की दृष्टि से मानव विकास के तीन अवस्थाओं  को ही महात्व दिया जाता है । मनोवैज्ञानिकों ने उन तीन अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों को ही शिक्षा अध्ययन में शामिल किया है जो निम्नलिखित है:-

1 शैशवावस्था - जन्म से 6 वर्ष तक
2 बाल्यावस्था - 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
3 किशोरावस्था -12 वर्ष से 18 वर्ष तक

शैशवावस्था जन्म से लेकर 6 वर्ष की अवस्था को कहते है । इस अवस्था में बच्चे का शारीरिक विकास तेजी से पाया जाता है। विशेष कर 2 से 5 वर्ष के बीच में बच्चे के शारीरिक विकास एवं भार में तेजी से परिवर्तन होता है । इस अवस्था में बालक माता पिता एवं उनके परिवारजनों पर निर्भर रहता है । इस अवस्था में बालक का मन विकसित नहीं होता। उसे भले बुरे एवं सही गलत की जानकारी नहीं होती है । यह समय बालक के अबोध मन ( Unconscious Mind ) की अवस्था है। इस अवस्था में बालक का मानासिक विकास कम होता है और यह प्रक्रिया धीमी गति से चलती है। इस अवस्था में बच्चा एक ही बात को बार बार बोलता है । इस अवस्था मे बालक नकल द्वारा सीखने की कोशिश करता है । अत: इस अवस्था में पारिवारिक वातावरण बच्चे के विकास में बहुत कुछ प्रभावित करती है ।

शारीरिक विकास के साथ साथ बालक के मन एवं मस्तिष्क का भी विकास होता है । यह कार्य साथ साथ चलता रहता है । मनोवैज्ञानिकों ने इसे तीन भागों में बांटा है ।

1 अबोध मन - ( Unconscious Mind ) जन्म से 5 वर्ष तक
2 उपबोधमन ( Subconscious Mind ) 6 वर्ष से 12 वर्ष
3 बोधमन ( Conscious Mind ) 12 वर्ष से मृत्यु तक

बाल्यावस्था -6 वर्ष से 12 वर्ष की अवस्था को बाल्यावस्था कहते हैं । 6 वर्ष से 9 वर्ष के बीच का समय बालक के उपबोध मन ( Subconscious Mind ) की अवस्था है । इस अवस्था में बालक को कुछ बहुत अच्छे बुरे एवं सही गलत की जानकारी होती है । शैशवावस्था में जहाँ विकास की प्रक्रिया तेज पायी जाती है वहीं बाल्यावस्था में विकास की गति कुछ धीमी पड़ जाती है । मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि  इस अवस्था में बालक की तर्क शक्ति एवं चिन्तन की क्षमता बढ़ जाती है । इस अवस्था में बालक माता पिता एवं परिवार जनों के अलावा अन्य बच्चों के सम्पर्क में आता है चूंकि वह स्कूल जाना शुरू कर देता है । अतं इस अवस्था में स्कूल का वातावरण, उनके साथ पढऩे वाले बच्चे एवं उनको पढ़ाने वाले शिक्षकों के व्यवहार उनके विकास को प्रभावित करता है । चूंकि अलग अलग बच्चे की तर्क शक्ति एव उनके चिंतन की क्षमता अलग अलग पाई जाती है अत: शिक्षकों को उनके अनुकूल विभिन्न अध्ययन पद्धति का उपयोग करना चाहिए ।

किशोरावस्था:- 12 वर्ष से 18 वर्ष की अवस्था को किशोरावस्था कहते हैं । इस अवस्था में बाल्यावस्था की अपेक्षा किशोरावस्था में शारीरिक विकास में तेजी पायी जाती है । इस अवस्था में शरीर की लम्बाई एवं उसके भार में भारी परिवर्तन आता है । लडक़ों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई भार एवं मांसपेशियों में वृद्धि तेजी से पायी जाती है । इस अवस्था में बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता है, और अच्छे, बुरे एवं सही गलत की पूर्ण जानकारी होती है । मनोवैज्ञानिक आधार पर यह बोध मन (Conscious Mind ) की अवस्था है ।
इस अवस्था  में लडक़े एवं लड़कियों के प्रजनन अंग एवं मांसपेशियों का विकास होता है जो लडक़ों एवं लड़कियों में अर्थात् विपरीत लिंग के बीच आकर्षण को बढ़ाता है । यह आवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण अवस्था है । चूंकि इसी अवस्था में बालक का भविष्य निर्धारित होता है । इस अवस्था में बहुत से उतार चढ़ाव आते हैं और उफनती नदी की तरह होता है । इसलिए इस अवस्था को तूफान और झांझावतों की आवस्था कहते हैं। चूकि इस आवस्था में यौन सम्बन्ध, अपराध नशा-पान एवं कुसंगति की ओर बढने की संभावना प्रबल होती है । इस आवस्था में उनके माता पिता समाजिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक, वातावरण का उनके विकास को प्रभावित करती हैं ।

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