Vedang | वेदांग | UP Lecturer Sanskrit Exam Preparation | CTET | NET | REET
Vedang | वेदांग
शिक्षा-उच्चारण-नासिका-6 अंग-वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम, संतान
कल्प-कर्मकांड/अनुष्ठान-हाथ
व्याकरण-शब्दरूप ज्ञान-मुख
निरूक्त-निर्वचन-कान
छन्द-छन्द-पैर
ज्योतिष-कालनिर्णय-नेत्र
1-शिक्षा:-
शिक्षा के 6 अंग हैं।
वर्ण-अकारादि
मात्रा-ह्स्व, दीर्घ, प्लुत
स्वर-उदात्तादि
बल-उच्चारण स्थान, प्रयत्न
संतान-संहिता (परः सन्निकर्ष )
2-कल्प:-
कल्प चार हैं। श्रौतसूत्र, धर्मसूत्र, शुल्वसूत्र और ग्रह्यसूत्र
-श्रौतसूत्र: -
-ऋग्वेद के अश्वलायन, शांखयन
-यजुर्वेद के 8 श्रौतसूत्र हैं।-कात्यायन, पारस्कर (शुक्ल), बौधायन, आपस्तम्भ, हिरण्यकेशी, वैखानस, भारद्वाज व मानव (कृष्ण) ।
-सामवेद के चार श्रौतसूत्र हैं।-आर्षेय (मश्क), लाटयान, द्ास्याण, जैमीनिय।
-अथर्ववेद - वैतान
-ग्राह्यसूत्र:- 16 संस्कार, गृहस्थ जीवन।
ऋग्वेद के आश्वलायन और शांखायन
यजुर्वेद के 10 हैं। -पारस्कर (शुक्ल), बौधायन, आपस्तम्भ, हिरण्यकेशी, वैखानस, भारद्वाज, अग्निवेश्य, मानव, वाराह व कण्ठक ( कृष्ण )।
समवेद के 3 हैं।-गोमिल, खादिर, जैमिनीय
अथर्ववेद-कौशिक
-धर्मसूत्रः- स्मृतियां, हिन्दू कानून
ऋग्वेद-
यजुर्वेद-
सामवेद-गौतम
अथर्ववेद-
-शुल्वसूत्रः- ज्यामीतिय शास्त्र, रेखागणित, यज्ञवेदी, निर्माण विधि, नाप।
शुल्वसूत्र केवल यजुर्वेद के ही हैं।
शुक्ल यजुर्वेद के कात्यायन हैं और कृष्ण यजुर्वेद के बौधायन, आपस्तम्भ, मैत्रेयणिय, मानव, वाराह और बधूल हैं।
3 निरूक्त:-
निरूक्त निघण्टू का भाष्य है। महाभारत के रीतिपर्वानुसार निघण्टू के प्रणेता प्रजापति कश्यप हैं।
निघण्टू के 5 अध्याय हैं और 1 व 3 को नैघण्टुक कांड कहा जाता है।
दुर्गाचार्य ने दुर्गावति में 14 निरूक्तकार बताए हैं। जिनमें 13वें निरूक्तकार महामुनि यास्क हैं।
यास्क कृत निरूक्त में 14 अध्याय हैं और इसमें नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात चतुर्वेदों के लक्षण हैं।
वररूचि ने निरूक्त-निचय नामक टीका लिखी है।
4 व्याकरण:-
व्याकरण का वृषभ रूपक जरूर समझें। जिसके अनुसार इसके निम्न अंग और उनमें क्या क्या शामिल है। यह भी याद करें। यानि इस वृषभ के सींग, पाद, सिर, बंध, हाथ आदि बताए गए हैं, जो निम्नानुसार हैं।
4 सींग-नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात
3 पाद- भूत, भविष्य, वर्तमान
2 सिर- सुप और तिंग
7 हाथ -सातों विभक्तियां
3 बंध- उर, कण्ठ और सिर से बांधा गया है।
-व्याकरण के पांच प्रयोजन पतंजलि के अनुसार रक्षा, उह, आगम, लघु और असन्देह कहे गए हैं।
-शाकटायन मुनि के ऋकतंत्रानुसार व्याकरण कथन इस प्रकार है क्रमशः - ब्रह्मा-बृहस्पति-इन्द्र-भारद्वाज-ऋषि-ब्राह्मण
-एन्द्र व्याकरण प्राचीनतम व्याकरण है।
-पाणिनी व्याकरण के चार नाम-अष्टक, अष्टाध्यायी, शब्दानुशासन, वृत्तिसूत्र हैं।
अष्टाध्यायी में कुल 8 अध्याय हैं।
प्रत्येक अध्याय में 4-4 पाद हैं।
पाद सूत्रों में विभक्त हैं।
पहले और दूसरे अध्याय में संज्ञा, परिभाषा के सूत्र हैं।
तीसरे और पांचवें अध्याय में कृदन्त और तद्धित प्रत्ययों का वर्णन है।
छठें अध्याय में द्वित्व, सम्प्रसारण, सन्धि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ इत्यादि, सातवें अध्याय में अंगाधिकार प्रकरण और आठवें अध्याय में द्वित्व, प्लुत, णत्व, यत्व आदि का वर्णन किया गया है।
वार्तिकों की रचना कात्यायन ने की है और महाभाष्य पतंजलि ने लिखा है।
त्रिमुनि- पाणिनी, कात्यायन और पतंजलि को त्रिमुनि और पाणिनी की व्याकरण, कात्यायन के वार्तिक और पतंजलि के महाभाष्य को त्रिमुनि व्याकरण कहा जाता है।
-वामन जयादित्य ने काशिकावृति, भट्टोजीदीक्षित ने सिद्वान्त कौमुदि और भर्तृहरि ने दर्शन प्रधान व्याकरण शास्त्र वाक्य पदीय की रचना की।
5-छन्दः-
लौकिक संस्कृत में मात्र पदों को ही छन्द कहा जाता है। वैदिक में गद्य-पद्य सभी में छन्द हैं।
-कात्यायन के अनुसार छन्द लक्षण-अक्षरों का परिमाण ही छन्द है। यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः
-छन्द में एक अक्षर कम होने पर निचृत, एक अक्षर अधिक होने पर भूरिक कहा जाता है। जैसे गायत्राी छन्द में 24 अक्षर हैं। एक कम 23 होने पर उसे निचृत गायत्री कहा जाएगा। एक अधिक यानि 25 होने पर उसे भूरिक गायत्री कहा जाएगा।
दो अक्षर कम होने पर विराह और दो अक्षर अधिक होने पर स्वराट कहा जाएगा।
-पिंगलक ने छन्द सूत्र नामक ग्रंथ लिखा। वे पाणिनी के अनुज थे। यमाताराजभानसलगम इन्हीं का सूत्र है। हलायुद्ध ने मृतसंजीवनी टीका लिखी।
-वैदिक छंद के प्रकार-
-अक्षरगणनानुसारी
-पादाक्षरगणनानुसारी
वैदिक छन्दों की संख्या 26 मानी गई है। आरम्भिक 5 वेद में प्रयुक्त ही नहीं हैं। शेष 21 को 3 सप्तकों में बांटा गया है।
-प्रथम सप्तक-
गायत्री-24
उष्णीक-28
अनुष्टुप-32
बृहती-36
पंक्ति-40
त्रिष्टुप-44
जगति-48
-द्वितीय सप्तक- द्वितीय सप्तक के सभी छन्द अतिछन्द कहलाते हैं। इनकी अक्षर संख्या पहले की अपेक्षा दूसरे में 4 अधिक होती है और नाम के आगे अति लग जाता है।
अतिजगति-52
शक्वरी-56
अतिशक्वरी-60
अष्टि-64
अत्यष्टि-68
धृति-72
अत्यधृति-76
-तृतीय सप्तक-
कृति-80
प्रकृति-84
आकृति-88
विकृति-92
संस्कृति-96
अभिकृति-100
उत्कृति-104
-ऋग्वेद में सर्वाधिक त्रिष्टुप छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके बाद गायत्री और जगति आते हैं।
ज्योतिष
तैतरीय ब्राह्मणानुसार ब्राह्मण वसंत ऋतु में , क्षत्रीय ग्रीष्म ऋतु में व वैश्य शरद ऋतु में यज्ञ के लिए अग्नी का आह्वान करे।
भारतीय ज्योतिषशास्त्र का प्राचीनतम ग्रंथ - वेदांग ज्योतिष है।
इसके रचयित लगध मुनी हैं।
इसमें आर्चज्योतिष ऋग्वेद व याजुस ज्योतिष यजुर्वेद से संबंधित है।
निरूक्त ( अध्याय प्रथम और द्वितीय )
द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद तक निरूक्त की भूमिका है।
प्रथम अध्याय-निघण्टू का लक्षण, पदो ंके भेद, भाव के विकार, शब्दों का घातुज सिद्धान्त, निरूक्त की उपयोगिता।
द्वितीय अध्याय - प्रथम पाद के निर्वचन के सिद्धान्त, निघण्टु के शब्दों की व्याख्या, द्वितीय पाद के सप्तम पाद तक ऋचाओं के उद्धरण देकर शब्दों का निर्वचन।
1 नाम - सत्वप्रधानानानि नामानि -यास्क ।
सत्व यानि सिद्ध क्रिया जैसे पाठ
2 आख्यात - भावप्रधानमाख्यातम् ।
भाव यानि क्रिया जैसे पढना।
3 उपसर्ग - न निर्बद्धा उपसर्गा अर्थान्निराहुरिति शाकटायनः । नामाख्यातयोस्तु कर्मोपसंयोग द्योतका भवन्ति। अर्थात् नाम, आख्यात से अलग होकर उपसर्ग अर्थ का निश्चय नहीं कर सकते। वे अर्थ के द्योतक तो होते हैं वाचक नहीं।
उच्चावचाः पदार्थाभवन्तिीति गाग्र्य।
गाग्र्य के अनुसार उपसर्ग स्वतंत्रतावस्था में भी अर्थवान होते हैं। उपसर्ग से युक्त होने पर नाम और आख्यात में र्जो अाि की भिन्नता आती है वही उसका स्वतंत्र अर्थ है। जैसे-
आ-इधर
प्र, परा-उधर
अभि-सामने
प्रति-उल्टे
अति, सु-आदर के अर्थ में
उत्-उपर
सम्-एकसाथ
वि, अव-अलग
अनु-समान, पीछे
अवि-संसर्ग
उप-समीप
परि-चारों ओर
अधिक-उपर होना
4 निपात - उच्चावचेषुअर्थेषु निपतन्ति इति निपाताः । निपात तीन प्रकार के हैं।
1 उपमार्थक - इव, न, चित्त, नु आदि चार प्रकार के ।
इव - भाषा व वेद दोनों में उपमार्थक ।
न - भाषा में निषेधार्थक, वेद में निषेधार्थक व उपमार्थक दोनों ।
चित्त व नु - दोनों अनेकार्थक ।
2 कर्मोपसंग्रहार्थक - दो या दो से अधिक समास पदों के मध्य में आकर कथित अर्थों या वस्तुों की भिन्नपता को निश्चित रूप् से सूचित करते हैं।
च, वा, आ, अह, ह, किल, हि, ननु, खलु, शाश्वतम्, नूनम्।
3 पदपूर्णार्थक -पादपूर्ति के लिए । कम, इम, इत, उ, इव, त्व, त्वत्
व्युत्पत्ति
निघण्टु -वैदिक शब्द कोष को निघण्टु कहते हैं।
-निगमा इमे भवन्ति- छन्दोभ्यः समाहृत्य समाहृत्य समाम्नातः ।
व्युप्पत्ति की तीन अवस्थाएं ( दुर्गाचार्यानुसार )
1 प्रत्यक्ष वृत्ति -धातु स्पष्ट रहता है जैसे -निगमपितृः ।
2 परोक्षवृत्ति - धातु सामान्य प्रयोग में अलग हो जाता हैै। जैसे- निगन्तुः ।
3 अतिपरोक्षवृत्ति - धातु का पता ही नहीं चलता। जैसे -निघण्टु ।
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