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Tuesday, January 31, 2017

सरकार ने सम्मान तो खूब दिया पर सीखा कुछ नहीं


-सरकारी स्कूलों में निजी जैसी सुविधाएं मिली तो बदल गया सबकुछ

अलवर. सरकार ने अच्छा काम करने वाले शिक्षकों और भामाशाहों का सम्मान तो खूब किया, लेकिन उनके किए सुधार के साधारण उपाय नहीं अपनाए। इसके विपरीत बंदरबांट की पोल वाली अनेक प्रकार की छूट और निशुल्क वितरण जैसी सुविधाएं देती रही, जिनका तत्कालिक असर तो दिखा, लेकिन ये योजनाएं भी बाद में धराशायी हो गई और सरकारी स्कूलों की साख गिरती रही। नामांकन भी गिरता गया। एेसे में स्कूलें अनार्थिक होती रही और उन्हें बंद करने की नौबत आ पहुंची।
शिक्षाविदों के अनुसार शिक्षा में सुधार और नामांकन बढ़ाने में आजकल सबसे बड़ी भूमिका ट्रांसपोर्ट और ड्रेस कोड की भी है। यह एक तरह का शो बिजनेस बन चुका है। सरकार इस बात को या तो अभी तक नहीं समझ पाई या निजी स्कूलों को लाभ पहुंचाने के लिए धृतराष्ट्र और गांधारी की भूमिका में आ गई। जबकि अनेक स्कूलों में राजकीय विद्यालयों में कार्यरत गंभीर शिक्षकों ने इस बात को भांप लिया। पूरे प्रदेश में शिक्षकों ने स्वयं के स्तर पर या ग्रामीणों और दानदाताओं के सहयोग से जहां-जहां भी यह प्रयोग किया गया, सफल रहा। अलवर और सीकर जिलों में इसके अच्छे उदाहरण देखे जा रहे हैं। सरकार भामाशाहों और शिक्षकों का तो सम्मान करती रही, लेकिन स्थायी रूप से इस तरह के स्कूलों से कुछ नहीं सीखा।

कैसे हुए सफल

सीकर जिले की बात करें तो पलसाना का सीनियर सैकंडरी स्कूल, ढांढण, हरसाणा सीनियर स्कूल, बीबीपुर आदि करीब ५०० से अधिक स्कूल एेसे हैं जहां शिक्षकों ने स्कूल बचाने, नामांकन बढ़ाने और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए आपसी सहयोग से या भामाशाहों और दानदाताओं के सहयोग चंदा एकत्र कर बच्चों को ट्रांसपोर्ट सुविधा उपलब्ध कराई। ड्रेस कोड भी बदला। नतीजा यह हुआ कि बच्चों का नामांकन जो दहाई के अंक में था वह सैकडे के अंक में जा पहुंचा। उदाहरण के तौर पर सीकर जिले के पलसाना स्कूल को लें तो वहां दो वर्ष पहले 25 बच्चे थे जो अब 200 से अधिक हो गए हैं।
इसी प्रकार अलवर का बम्बोरा स्कूल जहां बच्चों को ये सुविधाएं दी गई तो नामांकन बढ़ता चला गया। बंबोरा के राजकीय उमावि में बच्चों को ब्लेजर उपलब्ध करवाए गए। इसके अलावा दानदाताओं के सहयोग से वहां ऑडिटोरियम बनवाया जा रहा है। ग्रामीणों को स्कूल से जोड़ा गया तो वहां सभी सुविधाएं आ गई। यहां तक कि टॉयलेट भी काफी अच्छे और आकर्षक बनाए गए हैं। इससे खासकर बेटियों को सहूलियत मिली। इस स्कूल की स्थिति देखें तो 2008-09 में नामांकन जहां 38 ही रह गया था वहीं अब यह 250 का आंकड़ा छू रहा है।
इसी प्रकार अलवर के खैरथल के ही राजकीय उमावि को लें। यहां गत वर्ष बच्चों को ग्रामीणों के सहयोग से ट्रांसपोर्ट दिया गया, विकास कोष से रिक्त पदों पर फिजिक्स, कैमेस्ट्री जैसे विषयों के अध्यापक लगाए गए। परिणाम अच्छा आया। प्रदेश में यह स्कूल नामांकन में प्रथम रहा। गत वर्ष यहां 850 से अधिक बच्चों ने प्रवेश लिया। इस वर्ष भी 586 बच्चे नए आए हैं। जबकि इससे पहले स्कूल का नामांकन मात्र 223 रह गया था। फिलहाल स्कूल में 1132 का नामांकन है। इसमें से बालिकाओं की संख्या 204 है जो कि 2014-15 में शून्य थी।

मुफ्त नहीं बांटे, जरूरी सुविधाएं देना ही पर्याप्त

शिक्षकों व भामाशाहों के सम्मान के साथ सरकार को शिक्षा में सुधार के निर्णय करते वक्त शिक्षकों को शामिल किया जाना चाहिए। निशुल्क उपलब्ध कराने की योजना के बजाय शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किए जाएं तो सरकारी स्कूल पीछे नहीं रहेंगे। निजी स्कूलों में कौन सी सुविधाएं दी जाती हैं। फिर भी उनके नामांकन अधिक रहता है। सरकारी स्कूलों को निजी के तौर पर विकसित किया जाए तो वहां भी सुधार हो सकता है।

-उपेन्द्र शर्मा, शिक्षक, सी.सै.स्कूल, पलसाना, सीकर

स्कूल में एक वक्त एेसा आया कि नामांकन गिरता जा रहा था। तब ग्रामीणों के सहयोग से बच्चों को वाहन व निजी स्कूल जैसी सुविधाएं दी। पढ़ाई की गुणवत्ता पर सख्ती से ध्यान दिया तो परिणाम अच्छा आया। अब खुद लोग खुद चाहते हैं कि उनके बच्चे इस सरकारी स्कूल में पढें। यहां खर्च तो न के बराबर है और पढ़ाई व सुविधाएं पूरी हैं, जबकि निजी स्कूलों में खर्च इतना है कि आम आदमी उसे वहन नहीं कर सकता। यदि सरकार स्कूलों में निशुल्क पुस्तकें, पोषाहार जैसी सुविधाएं नहीं भी दे और पढ़ाई व परिणाम पर सख्ती रखे तो ये स्कूल अपनी साख वापिस पा सकते हैं। स्कूलों का ढर्रा बिगाडऩे में शिक्षकों का भी बड़ा योगदान है, उन्हें भी समझना होगा कि यदि सरकारी स्कूलों को नहीं बचा पाए तो नौकरी भी नहीं रहेगी। नई पीढ़ी को निजी स्कूलों में बहुत कम वेतन पर ठोकरें खानी पडेंगी।

-महावीर जाट, प्रिंसीपल, राउमावि, खैरथल, अलवर

सरकार बच्चों को ट्रांसपोर्ट दे रही है और सुविधाएं भी। जिन स्कूलों ने अपने स्तर पर सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं निश्चित तौर पर यह प्रत्यक्ष है कि उन स्कूलों में अन्य स्कूलों की अपेक्षा नामांकन और पढ़ाई का स्तर काफी अच्छा है। यह बात भी सही है कि जितनी राशि निशुल्क योजनाएं चलाने में खर्च हो रही है उससे कम में स्कूलों की दशा सुधारी जा सकती है। शिक्षा नीति बनाते समय प्रशासनिक अधिकारियों के साथ शिक्षकों को आवश्यक रूप से शामिल किया जाना चाहिए।

-रविकांत शर्मा, एडीईईओ, माध्यमिक प्रथम, अलवर

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