दूसरे के कंधे पर बंदूक कब तक...2
...जैसे-तैसे में उन साहब के चंगुल से निकल आया। लेकिन अपने साथी उस भले इनसान को नहीं बचा सका। उसे उसके हाल पर छोडऩा पड़ा। मुझे लगा कि कहीं मैं दोस्ती के चक्कर में उनकी रिश्तेदारी के बीच विलेन नहीं बन जाऊं। सो मैंने अपना रस्ता बदल लिया और अपने देश वापिस आ गया।
दूसरा किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है। कार्यालयीन षड़यंत्रों का शिकार मैं वर्ष २०११ में मारवाड़ पहुंच गया। वहां फिर उन्हीं साहब से सामना हुआ। मैं इस बार सतर्क था। मेरे पिछले अनुभव मरे मार्गदर्शक थे। साहब का वही प्रयास। कंधा तलाशने का। इस बार भी वे एक एेसा बंदा तलाश चुके थे जो इसके लिए तैयार था। उसकी महत्वकांशा ने उसे इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह साहब की बंदूक के लिए अपना कंधा उपलब्ध कराए सो दोनों को एक दूसरे का सहारा मिल गया। साहब को कंधा मिल गया और इस बंदे को महत्वकांक्षाएं पूरी होती नजर आने लगी। यहां भी मैं साफ बच निकला। मारवाड़ में इस मारवाड़ी बंदे को एक ओहदा मिल गया, लेकिन साहब की जो साख और वाह-वाही शेखावाटी में थी वह बरकरा न रह सकी। मारवाड़ ने शेखावाटी की अचकन में दीमग लगा दी। यह दीमग अचकन को खाने लगी थी लेकिन शायद साहब को इस बात का एहसास नहीं हो पाया। वे अपनी धुन में मस्त थे लेकिन मैं देख रहा था कि वह यहां बहुत कुछ खो चुके हैं...। इसी बीच साहब का तबादला पूर्व में हो गया। वे स्वरों की मात्रा वाले शहर में पहुंच गए। नियती ने एक बार फिर मुझे उनके साथ कर दिया और मैं अप्रेल २०१४ में उनके साथ इस शहर को चल दिया...।
क्रमश:
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