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Wednesday, October 26, 2016

दूसरे के कंधे पर बंदूक कब तक...1

दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर अधिक दिन तक नहीं चलाई जा सकती। पिछले दस वर्ष में मैंने एेसे ही एक अधिकारी के साथ काम किया जिसका प्रिय शगल यही था कि वह बंदूक चलाने के लिए दूसरे के कंधे चुनता था। जब मैं शेखावाटी में था तब की बात बताता हूं। वर्ष २००५ की बात है। एक नए अधिकारी तबादला होकर आए। जातिवाद से वह भी अछूते नहीं थे लेकिन इनकी पॉलिसी केवल स्वयं हस्ताक्षर निहारने की थी। वे केवल खुद के काम पर ध्यान देते और मालिकों की नजर में अच्छे बने रहने के लिए किसी को भी दांव पर लगा सकते थे। इन साहब का चोला एेसा था कि जहां देखो इनकी वाह वाही थी। लोग इनकी तारीफ करते नहीं थकते थे। यह आवरण एेसा बना दिया गया था कि एक बार मैं भी उस गाढ़े आवरण के पार नहीं देख पाया। लेकिन कभी कभी सिक्सथ सेंस काम करता है। पूर्ण विश्वास से पहले मैंने जब कुछ समझने की कोशिश की तो मेरी समझ में कहानी आ गई और धीरे-धीरे यह प्रूव हो गया कि मैं सही हूं। साहब के ऊपर लोगों ने चाश्नी का एेसा आवरण चढ़ा रखा है कि जिसके पार देखने की हिम्मत हर किसी में नहीं है। किसी से कुछ कहो तो भी विश्वास नहीं करेगा। एेसे में खुद बचना ही सबसे बड़ा हथियार होता है। मैंने वही इस्तेमाल किया और मैं बचा भी रहा।
शेखावाटी में दो जातियों विशेष के बीच हमेशा मन संघर्ष की स्थिति रहती है। एेसे में इन साहब ने अपनी ही जाति के एक एेसे शख्स के कंधे को बंदूक रखने के लिए चुना जो उनका रिश्तेदार भी लगता था। मेरा भी वह  काफी करीबी था। एक भला इनसान। एेसे लोग इस जमाने में तो बहुत कम रह गए हैं। साहब ने इन्हें बलि का बकरा बनाना शुरू किया। लगातार दो-दो इंक्रीमेंट दिलवाए। यह भला मानस उनके झांसे में आए बिना नहीं रह सका। तरक्की की एेसी कांटो छिपी कालीन इस भले इनसान के नीेचे बिछाई गई थी कि कांटे अभी न तो चुभने थे न दिखने ही थे। साहब ने इनके कंधे पर अपनी बंदूक रख दी और लगातार फायर शुरू कर दिए। सबसे पहले अपनी एंटी कास्ट पर वार करना शुरू किया। कंधा इस भले इनसान का था और फायर साहब कर रहे थे। साहब की पॉलिसी थी। इस भले मानस से किसी को धमकवा देते, उसका काम अटकवा देते। यह भी क्या करता। साहब को जो हुकुम था मानना था। साहब उन लोगों के रुकवाए काम करवा खुद भले बन जाते। मैंने इस भले इनसान को यह बात समझाई। शुरू में तो नहीं लेकिन बाद में उसके भी यह बात समझ में आ गई लेकिन वह उनके चंगुल से निकल नहीं पाया। यहां इस इनसान की भलमनसाहत ही इसकी दुश्मन साबित हुई और पूरे जमाने की नजर में यह विलेन बन गया और साहब शेखावाटी के हीरो। समय एेसा आया कि साहब मजे में मुख्यालय में पदासीन हैं और यह भलामानस घर बैठा है।
यहां मैं यह कहना चाहता हूं कि भला पन अच्छी बात है लेकिन हमें किसी का हथियार नहीं बनना है।
क्रमश:

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