दलदल में शीर्ष...
हम चाहे कितनी भी तरक्की कर जाएं लेकिन हमारी प्रकृति हमें हमारे अंदर छिपी निम्मनता से ऊपर नहीं उठने देती। सब पीछे छूट जाता है। हमारी पढ़ाई लिखाई, दी गई सीखें, सही-गलत की हमारी समझ और हमारे खुद के दिए उपदेश भी हमें दगा सा देते लगते हैं जब हम जातिवाद के दलदल में फंस जाते हैं। अलवर में इन दिनों यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। स्थानीय शाखा में शीर्ष स्तर पर बैठे अधिकारी का एेसा बर्ताव यह ब्लॉग लिखने पर मजबूर कर रहा है। मैं कभी इस दलदल में नहीं पड़ा। सक्षम होते हुए भी मैंने कभी एेसा नहीं किया कि मुझे कोई इस तरह ब्लेम करे। यहां जाति विशेष को प्रोटेक्ट किया जा रहा है। गैर जातियों को चुन-चुन कर जिम्मेदार पदों से से पृथक किया जा रहा है। एेसा हो रहा है मानों बंदर के हाथ नारीयल आ गया हो और वह उसे डुगडुगी समझ बैठा हो। बंदर उसे हिला तो रहा है लेकिन आवाज नहीं आ रही। यही हो भी रहा है। जातिवाद की गंद में फंसे इस शख्स ने जिम्मेदार पदों पर अपने सजातियों को आरोपित तो कर दिया लेकिन वो परिणाम नहीं दे पा रहे। यह तय हो गया है कि समझ जाति से नहीं आती। परिणाम जाति से नहीं आते। लेकिन यह भी तय हो गया है कि शीर्ष से भी शीर्ष निठल्ला है और बेखबर है। या जानबूझकर वह एेसा होने दे रहा है। क्योंकि वह पंगु है।
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