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Tuesday, November 10, 2015

अलवर का पारसी थियेटर राजर्षि अभय समाज शतायु हो चुका है। इस संबंध में प्रमुख जानकारी यहां उपलब्ध कराई जा रही है जो कि साहित्य और उससे जुड़े लोगों से बातचीत के आधार पर है।


एक सदी से सांस्कृतिक परम्परा का संवाहक

नवरात्र से लेकर दीपावली तक अलवर सांस्कृतिक उत्सव में डूबा रहता है। नवरात्र के दौरान रामलीला और बाद में महाराजा भर्तृहरि नाटक का मंचन। नाटक का मंचन लगातार १७ दिनों तक चलता है। इसके समाप्त होते होते पांच दिवसीय दीपोत्सव शुरू हो जाता है। इस तरह करीब एक माह सांस्कृतिक आराधना में गुजर जाता है। इसे यूं भी कहा जा सकता है किअलवर की आत्मा को तलाशना हो तो कोई यहां इन्हीं दिनों में आकर देखे। रामलीला का मंचन यूं तो देश के गांव गांव में होता हैए लेकिन अलवर की एक रामलीला एेसी है जिसका १०० साल का जीवंत इतिहास है। यह है राजर्षि अभय समाज की ओर से मंचित रामलीला। इसके साथ ही संस्था की ओर से १९५८ से पारसी शैली के नाटक महाराजा भर्तृहरि का मंचन किया जा रहा है। एेसे में राजर्षि समाज को अलवर की सांस्कृतिक चेतना का संवाहक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक शताब्दी तक किसी परम्परा को जीवंत रखना आसान नहीं है। लेकिन राजर्षि समाज ने इसे अपने संकल्प व समर्पण से साकार किया और इसमें महाराजा भर्तृहरि नाटक के रूप में एक एेसा आयाम जोड़ा जो आज न केवल अलवर की सांस्कृतिक पहचान हैए बल्कि पारसी नाट्य शैली के संरक्षण व संवद्र्धन का भी अनूठा उदाहरण है।

इस शतायु संस्था का जीवन १९१६ में भगवान राम की लीला के मंचन से शुरू हुआ और यही इसकी प्राणवायु है। अपने जन्म से लेकर अब तक यह संस्था रामलीला का मंचन करती आ रही है। इससे जुड़े परिवारों की पीढि़यां बदल गईए नाम बदल गए लेकिन नहीं बदला तो समर्पण और सेवा का भाव। हालत यह है कि दादा ने जिस यात्रा को शुरू किया आज उनके पोते उसे निभा रहे हैं। यह आसान काम नहीं है। कई पीढि़यों की तपस्या का फल है।

महाराजा भर्तृहरि यहां के लोक आराध्य हैं और उनकी जीवनगाथा लोगों की सांंसों में रची बसी है। श्रृंगारएनीति व वैराग्य शतक के तीन भागों में बंटा यह नाटक मानव अंतरमन व उसकी अंतर चेतना की ही यात्रा है। उज्जैन के राजा भर्तृहरि अपना राज्य और वैभव त्यागकर सबसे पहले मत्स्य अंचल में अरावली की उपत्याकाओं के बीच तिजारा पहुंचे और यहां तपस्या की। कहा जाता है कि इसके बाद उन्होंने कुंभलगढ़के पास तपस्या की। फिर मौजूदा स्थान पर समाधि ली। महाराजा भर्तृहरि नाटक उनके जीवन और उनके द्वार रचित श्रृंगारएनीति और वैराग्य शतक पर आधारित है और आज पारसी शैली की जीवंतता का प्रमाण बन गया है। यहां के लोगों के लिए अपने आराध्य के जीवन चरित्र को अपनी आंखों के समाने पात्रों के माध्यम से साकार होते देखना एक आध्यत्मिक यात्रा की तरह है। यह यात्रा धर्मए अर्थए काम और मोक्ष की भारतीय अवधारणा को ही साकार होते देखना है। इस दौरान मानवीय रिश्तों को विभिन्न पात्र नए रूप में परिभाषित करते हैं। हर दर्शक उनसे तारतम्य जोड़कर जीवन की अलग अनुभूति से जुड़ जाता है। पात्र और उनका अभिनय दर्शकों को बांधे रखता है। सिनेमा और इंटरनेट के इस मायावी युग में भी भतृ्र्रहरि नाटक का मंचन देखने से लोग अपने को रोक नहींं पाते। १७ दिन तक एक ही नाटक का मंचन होता है और दर्शकों का कभी अकाल नहीं रहता। किसी शास्त्रीय नाटक या नाट्य शैली की सफलता का इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं होता कि उसकी दर्शक दीर्घा मंे कोई कुर्सी खाली नहीं है और तड़के चार बजे तक दर्शक निमग्न होकर बैठे हैं। यह भी तब है जब टिकट लेकर ही नाटक देखा जा सकता है।
दर्शकों को इस तरह बांधे रखना आसान नहीं है। भर्तृहरि के मंचन के दौरान कोई श्रृंगार शतक में खोकर रह जाता है तो किसी को वैराग्य शतक के दौरान रिश्तों और सांसारिकता से टूटता मोह बांधे रखता है। कोई राजा के न्याय व नीति का दीवाना हो जाता है। दर्शकों की मौजूदगी इस नाट्य परम्परा को जीवित रखने का संबल बनी हुई है। हालांकि किसी नाट्य परम्परा को जीवित रखना आसान नहीं है। लेकिन राजर्षि समाज की एक सदी की जीवन यात्रा इस मायने में अनूठी है। यह इसके संस्थापकोंए संचालकों व कलाकरों की कठिन तपस्या से संभव हुआ। सौ से अधिक कलाकार और उनका प्रशिक्षण आसान नहीं है। ये कोई पेशेवर कलाकार नहीं हैंए लेकिन उनका अभिनय किसी पेशेवर दक्षता का मोहताज नहीं है। रंगमंच पर अभिनय उनकी आस्था और श्रद्धा से जुड़ा है। राजर्षि समाज के सचिव महेश चंद्र शर्मा कहते हैंए कलाकारों व अन्य सभी सहयोगियों के लिए यह ईश्वर की उपासना की तरह है। सिर्फ संगीतकार व रानी पिंगला व मोहिनी के पात्रों का अभिनय करनेवाली दो महिला कलाकार ही ऐसी कलाकार हैं जिनको भुगतान किया जाता है। अन्य सभी कलाकार निशुल्क सेवा करते हैं। बहुत से कलाकार रामलीला व नाटक दोनों मंे अभिनय करते हैं।

राजर्षि समाज की स्थापना सामाजिक .सांस्कृतिक सोद्देश्यता से ही की गई थी। इसके पीछे मकसद था भगवान राम के आदर्श चरित्र को जनमानस में जीवंत बनाए रखना। भगवान राम जनमानस में बसे हैं और उनको विस्मृत नहीं किया जा सकता। फिर भी उनकी लीलाओं का मंचन किया जाता है। राजर्षि समाज के लिए रामलीला का मंचन किसी नाट्य कृति का मंचन न होकर किसी धार्मिक अनुष्ठान के आयोजन की तरह ही रहा। शुद्धता और सात्विक भाव से मंचन किया जाता है। इसका प्रभाव यह हुआ है कि इसने अलवर के लोकमानस में जल्द ही अपना स्थान बना लिया। लोग स्वतरू ही इससे जुड़ते गए और कारवां आगे बढ़ता गया। इसी तरह एक शताब्दी का सफर तय हो गया। अपनी इस यात्रा में समाज की ओर से कई बार नाटकों का मंचन भी किया गया। लेकिन उसमें निरन्तररता नहीं रही। यह निरन्तरता एक शताब्दी से रामलीला व ५७ साल से भर्तृहरि नाटक के मंचन में बनी हुई है। राजर्षि समाज ने सांस्कृतिक धारा और सामाजिक संस्कारों को तो पुष्ट किया ही सामाजिक सारोकार भी निभाए। १९३९ से १९४६ तक संस्था ने नाटक के प्रदर्शन के माध्यम से वार फंड एकत्र किया। लेकिन समाज का लक्ष्य भगवान राम और बाबा भर्तृहरि की लीलाओं के माध्यम से लोगों का उनका संदेश पहुंचाना है।

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