Ancient Civilization of Rajasthan | REET Exam Prepareation | Rajasthan G.K In Hindi PDF
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राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं
नमस्कार दोस्तों मैं हूं आपका दोस्त नीतेष। दोस्तों आप सभी ने रीट / RAS का फार्म भरा होगा और इसके लिए तैयारी भी कर रहे होंगें। आपको पता है कि रीट का एग्जाम 26 सितम्बर 2021 को होने जा रहा है। इसके बाद इसकी आंसर की और रीट 2021 का रिजल्ट भी आ जाएगा। लेकिन इस रिजल्ट में आपका सलेक्शन हो इसके लिए आपको तैयारी करनी होगी।
यहां इस पोस्ट में हम आपको रीट के लिए राजस्थान की प्राचीन सभ्यताओं के बारे में बता रहे हैं । यह आलेख रीट, आरपीएससी आरएएस प्रारंभिक व आरएएस मुख्य परीक्षा, पटवारी, सब इंस्पेक्टर, राजस्थान पुलिस सभी परीक्षाओं में समान रूप से उपयोगी होगा। यहां आपको इसकी पीडीएफ भी उपलब्ध कराई जा रही है, जिसे आप डाउनलोड कर भी पढ सकते हैं या सीधे इसी पेज पर पढ सकते हैं।
इस पोस्ट में आप राजस्थान की कालीबंगा, आहड, गणेश्वर, बालाथल, बागोर, रैंड सभ्यता, नगर सभ्यता, उनकी खोज, पाई गई प्रमुख चीजें, खोजकर्ता, सभ्यताओं की प्रमुख बातें, लौह युगीन सभ्यताएं, ताम्रयुगीन सभ्यताएं आदि के बारे में जान सकेंगे।
पुरातात्विक स्थल
कालीबंगा (हनुमानगढ)
’’यहां सरस्वती व दृषद्वती नदियों की घाटियों में हडप्पाकालीन विकसित सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए है। सरस्वती नदी को आजकल घग्घर नदी कहते है। यहां पर 12 मीटर उंचे और आधा किलोमीटर क्षेत्र के 2 टीलों की खुदाई की गयी। यह सभ्यता उत्तर से दक्षिण में 250 मीटर तथा पूर्व से पश्चिम तक 80 मीटर तक फैली हुयी थी। राजस्थान के उत्तर में हनुमानगढ जिले में भादरा से 125 किलोमीटर पूर्व, कालीबंगा नामक स्थान पर हडप्पाकालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यहां पर काली चूडियां अधिक मिली हैं। इसलिये यह स्थान कालीबंगा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सबसे पहले सन् 1950-51 में अमलानन्द घोष के नेतृत्व में खुदाई का कार्य प्रारम्भ हुआ। इसके बाद बी. के. थापर एवं बी. बी. लाल के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व विभाग ने खुदाई का कार्य सन् 1961 ई. में शुरू किया, जो सन् 1969 ई. तक चलता रहा। बी. के. थापर ने रेडियो कार्बन विधि से इस सभ्यता का समय 2300 ई. पू. निर्धारित किया। कालीबंगा स्वतंत्र भारत का वह पहला पुरातात्विक स्थल है जिसका स्वतंत्रता के बाद पहली बार उत्खनन किया गया। तत्पश्चात रोपड का उत्खनन किया गया। कालीबंगा के टीलों की खुदाई के दौरान दो भिन्न कालों की सभ्यता प्राप्त हुई है। पहला भाग 2400 ई. पू. से 2250 ई. पू. का है तथा दूसरा भाग 2200 ई. पू. से 1700 ई. पू. का है। यहॉं से एक दुर्ग, जुते हुए खेत, सडकें, बस्ती, गोल कुओं, नालियों, मकानों व धनी लोगों के आवासों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। कमरों में उपर की ओर छेद किए हुए किवाड व मुद्रा पर व्याघ्र का अंकन एकमात्र इसी स्थल पर मिला है। कालीबंगा से सात अग्निवेदियां प्राप्त हुई हैं। यहां प्राप्त सिन्धु घाटी पुरावशेषों के संरक्षण हेतु एक संग्रहालय की स्थापना की गयी है।
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कालीबंगा सभ्यता 5 स्तर में विभाजित हैं। इसमें दो बहुत प्राचीन हैं। दो बाद के विदित होते है। प्रथम व द्वितीय काल तो हडप्पा से भी पहले का आंका जाता है। यहां प्राप्त मकान 30 गुणा 15 गुणा 50 सेमी घनफल की कच्ची ईटों से बने हुये हैं। मकान हवादार एवं दो ओर की सडक से जुडे हुये होते थे। साधारणतः मकानों में दालान तथा चार या पांच बडे कमरे होते थे। गन्दे पानी को निकालने के लिए गोलाकार भाण्ड या बर्तन होते थे। जिन्हें एक-दूसरे से लगाकर रखा जाता था। इस प्रकार पानी चारों ओर न फैलकर जमीन पर ही सोख लिया जाता था। सडकों की चौडाई 1.8 मीटर से 7.2 मीटर थी। चार मुख्य सडकें उत्तर से दक्षिण और तीन पूर्व से पश्चिम को जाती थी। मकानों में चूल्हों के अवशेष भी मिले हैं। यहां पर एक गढी मिली है जिसकी उंचाई 30.07 मीटर थी। 40गुणा 20 गुणा 10 सेमी. की मोटी ईंट काम में आती थी।
खुदाई में विचित्र बर्तन भी मिले हैं जिन पर फूल, पत्ती, चौपड, पक्षी, खजूर एवं पशुओं के चित्र खडिया मिट्टी से चित्रित हैं। खुदाई में सीसा, कपडे के टुकडे अनेक प्रकार की चूडियां, खिलौने, पहियेदार गाडी व तांबे के औजार मिले हैं। नाप-तोल बांट, तांबे का बैल्ट हाथीदांत का कंघा आदि अनेक वस्तुएं मिली है। यहां पर मिट्टी की मोहरें मिली हैं, जिन पर सैन्धव सभ्यता के तुल्य चित्र अंकित है, जो यहा की लिपि है।
विद्वानों के विचार में सबसे पहले हल के द्वारा जुताई यहीं की गयी थी। यहॉं पर तीन प्रकार की कब्रें मिली हैं, जो आयताकार, गोलाकार एवं हंडियॉं के आकार की हैं। 1750 ई. पू. तक यह सभ्यता फलती-फूलती रही। सम्भवतः बाढ के कारण या कच्छ के रन के रेत से भर जाने के कारण यह सभ्यता नष्ट हो गयी। वर्षा के अभाव में यह स्थान मरूस्थल बनता गया।
आहड (उदयपुर)
इस स्थल की खोज सर्वप्रथम रत्नचन्द्र अग्रवाल ने 1954 ई. में की। 1961-62 ई. में हॅंसमुख धीरजलाल सांकलिया के नेतृत्व में इस स्थल का उत्खनन करवाया गया। आहड का सम्पूर्ण कालक्रम दो कालखण्डों में बांटा जा सकता है।
- प्रथम कालखण्ड ’ताम्रयुगीन’ व द्वितीय कालखण्ड ’लौहयुगीन’ सभ्यता के घोतक है। यहॉं ताम्र उपकरण, बर्तन, काले व लाल रंग के मृद्भाण्ड आदि प्राप्त हुए हैं। आहड के विशिष्ट आकृति के बर्तनों को ’ब्लैक एण्ड रेड वेयर’ कहा जाता है। प्राचीन शिलालेखों में आहड का पुराना नाम ’ताम्रवती’ अंकित है। तॉंबे के उपकरणों की प्रचूरता के कारण इसे प्राचीनकाल में ताम्रनगरी कहा जाता था।
दसवीं व गयाहरवीं शताब्दी में इसे ’आघाटपुर’ अथवा ’आघट दुर्ग’ के नाम से जाना जाता था। इसे ’धूलकोट’ भी कहा जाता है। उदयपुर से तीन किलोमीटर दूर धूलकोट के नीचे आहड का पुराना कस्बा दबा हुआ है जहॉं से ताम्र युगीन सभ्यता प्राप्त हुई है। ये लोग लाल, भूरे व काले मिट्टी के बर्तन काम में लेते थे। पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था। यहॉं तांबे की छः मुद्रायें व तीन मोहरें मिली है। एक मुद्रा पर एक ओर त्रिषूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता अंकित है जो तीर एवं तरकष से युक्त है। इस पर यूनानी भाषा में लेख अंकित है। यह मुद्रा दूसरी शताब्दी र्इ्रस्वी की है। यहॉं के लोग मृतकों को कपडों तथा आभूषणों के साथ गाडते थे। यहॉं का प्रमुख उघोग तांबा गलाना एवं उसके उपकरण बनाना था। यहॉं से टेराकोटा से बनी वृषभ आकृतियां मिली है, जिन्हें ’बनासियन बुल’ कहा गया है।
बैराठ (जयपुर)
यह सभ्यता बाणगंगा नदी के मुहाने पर विकासित हुई। प्राचीन मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर (वर्तमान बैराठ) में ’बीजक की पहाडी’ ’भीम जी की डॅंूगरी’ तथा ’महादेव जी की डूॅंगरी’ आदि स्थानों पर उत्खनन कार्य प्रथम बार दयाराम साहनी द्वारा 1936-37 में तथा पुनः 1962-63 में पुरातत्वविद् नीलरत्न बनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित द्वारा किया गया। 1837 ई. में कैप्टन बर्ट द्वारा यहॉं भाब्रु शिलालेख की खोज की गई जिसके नीचे ब्राहा्री लिपि में ’बुद्व-धम्म-संघ तीन शब्द लिखे हुये है। जिसे वर्तमान में कोलकाता संग्रहालय में रखा गया है। सिंधु घाटी सभ्यता के प्रागैतिहासिक काल के समकालीन इस स्थल में मौर्यकालीन (अशोक के शिलालेख) एवं मध्यकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसके उत्खनन में 36 मुद्राएॅं मिली हैं जिनमें 8 चॉंदी की पंचमार्क मुद्राएॅं व 28 इण्डो ग्रीक (जिसमें 16 मुद्राएॅं राजा मिनेन्डर की) मुद्राएॅ हैं। प्राचीनकाल में ’विराटनगर’ नाम से प्रसिद्व इस स्थल की खुदाई में एक गोल बौद्व मंदिर के अवशेष, मृद्पात्र पर त्रिरत्न व स्वस्तिक अलंकार आदि प्राप्त हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि यहॉं स्थित भीम की डूॅंगरी (पाण्डु हिल) के पास पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत किया था।
यहॉं सूती कपडे में बंधी मुद्राएॅं व पंचमार्क सिक्के मिले हैं। इस क्षेत्र से पुरातात्तिवक सामग्री का विशाल भंडार प्राप्त हुआ है। यहॉं लौह उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। 1999 में बीजक की पहाडी से अशोक कालीन ’गोल बौद्व मंदिर’ एवं ’स्तूप’ एवं ’बौद्व मठ’ के अवशेष मिले हैं जो हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित हैं ये भारत के प्राचीनतम् मंदिर माने जा सकते हैं। यहॉं एक स्वर्ण मंजूषा प्राप्त हुई है, जिसमें भगवान बुद्व के अस्थि अवशेष थे। सन् 634 में हेवनसांग विराटनगर आया था। उसने यहॉं बौद्व मठों की संख्या 8 लिखी थी। विराटनगर के मध्य में अकबर ने एक टकसाल खोली थी। इस टकसाल में अकबर, जहांगीर तथा शाहजहॉं के काल में तांबे के सिक्के ढाले जाते थे। यहॉं एक मुगल गार्डन, ईदगाह तथा कुछ अन्य इमारतें भी बनवाई गई थी।
गणेश्वर (सीकर)
प्राक्-हडप्पा, हडप्पाकालीन एवं ताम्रयुगीन यह स्थल सीकर जिले के नीमकाथाना तहसील में कांटली नदी के उद्गम स्थल पर स्थित है। इसका उत्खनन आर.सी. अग्रवाल और विजय कुमार ने 1977 में करवाया। ताम्रयुगीन संस्कृतियों में सबसे प्राचीनतम् (लगभग 2800 वर्ष ई. पू.) यह स्थल ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी कहा जाता है। यहॉं जून, 2006 से बनाये गये 1000 तीन तथा करीब 2000 ताम्र उपकरण भी मिले है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन समय में गणेश्वर से ही हडप्पा में ताम्र की वस्तुएॅं भेजी जाती थी और इसके बदले में यहॉं के निवासियों को अनाज मिलता था।
गणेश्वर के उत्खनन से कई सहस्त्र ताम्र आयुध व ताम्र उपकरण प्राप्त हुए है। इनमें कुल्हाडे, तीर, भाले, सुइयॉं, मछली पकडने के कॉंटे, चूडियॉं व विविध ताम्र आभूषण प्रमुख हैं। इस सामग्री में 99 प्रतिशत तांबा है। ताम्र आयुधों के साथ लघु पाषाण उपकरण मिले हैं, गणेश्वर से जो मृद्पात्र प्राप्त हुए हैं, वे कपिषवर्णी मृद्पात्र कहलाते है। मृद्पात्रों में प्याले, तश्तरियां व कुंडियॉं प्रमुख है। शिकार के साथ पशुपालन भी प्रारम्भ हो चुका था तथा इस समय लोग मृद् भांड कला में विशेष रूप से सिद्व-हस्त थे।
बालाथल:
उदयपुर शहर से लगभग 42 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में वल्लभगर तहसील में स्थित इस बालाथल स्थल से ताम्रपाषाण युगीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त (1993) हुए हैं। बी.एन. मिश्र के नेतृत्व में उत्खनित इस क्षेत्र से पत्थर की ओखली, कर्णफूल, हार, मृण्मूर्तियॉं व तॉंबे के आभूषण प्राप्त हुए हैं।
बागोरः
बागोर स्थल भीलवाडा जिले से लगभग 25 किलोमीटर दूर कोठारी नदी के किनारे स्थित है। डॉ. वीरेन्द्रनाथ मिश्र के नेतृत्व में 1967 में उत्खनित किए गए इस स्थल से प्रस्तर युग के उपकरण, हथौडे, छेद करने वाले पत्थर, गाय, बैल, सुअर आदि की हड्डियों के अवशेष प्राप्त हुए है। इसे आदिम संस्कृति का संग्रहालय कहा जाता है।
नगर सभ्यता (टोंक)
यह टोंक जिले के उणियारा कस्बे के पास स्थित स्थल है, जिसका प्राचीन नाम मालव नगर था। यहॉं बहुसंख्यक मात्रा में आहत मुद्राएॅं एवं मालव सिक्के प्राप्त हुए है। इस सभ्यता का उत्खनन डॉ. एन. के. पुरी के निर्देशन में हुआ।
रैढ सभ्यता (टोंक):
टोंक जिले में प्राचीन राजस्थान का टाटा नगर के नाम से प्रसिद्ध यह नगर, जो निवाई के समीप स्थित है। यहॉं उत्खनन में एशिया का अब तक का सबसे बडा सिक्कों का भंडार तथा बडी संख्या में प्राचीन मूर्तियॉं मिली है।
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