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Tuesday, July 25, 2017

क्या आप जानते हैं कहां से आती हैं राखियां

क्या आप जानते हैं कहां से आती हैं राखियां

दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं जहां हिंदु रहते हों और वो रक्षा बंधन नहीं मनाते। प्रत्येक बहिन चाहती है कि उसके भाई की कलाई पर बहना के प्रेम का यह अटूट धागा मजबूत ही नहीं सुंदर भी दिखे। ताकि भाई-बहिन का प्रेम अमर रह सके। भाई बहिन के अमर पे्रेम की गाथा बिना अलवर का नाम आए पूरा नहीं हो सकती। क्योंकि अलवर में राखियों का इतना बड़ा हब बन चुका है कि देश के हर कौने में अलवर से बनी राखियां बेची जाती हैं। करीब दो दर्जन से अधिक देशों में अलवर में बनी राखियां निर्यात की जा रही हैं।

कितने तरह की राखियां

बाजार में राखियां देख यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी राखी खरीदी जाए। क्योंकि एक से बढ़कर एक डिजायन बाजार में मौजूद होते हैं। कोई हल्की तो कोई भारी कोई छोटी तो कोई बड़ी राखियां बाजार में मौजूद होती हैं। सस्ती से सस्ती और महंगी से महंगी राखियों से बाजार सजा रहता है। कोई अधिक चमकीली है तो कोई कम। कोई गोल्डन कलर में होती है तो कोई सिल्वर कलर में। यह सब देख आंखें चुधियां जाती हैं कि कौनसी राखी खरीदें।

बिजली का कमाल

एक समय था जब राखी का बाजार केवल दिन में सजता था। ऐसे में अंधेरा होने से पहले ही राखियां खरीदनी होती थी। आजकल बाजार में इतनी तरह की लाइटें मौजूद हैं कि वे राखियों की रंगत ही बदल देती हैं। कई बार तो लोग धोखा खा जाते हैं। क्योंकि आजकल बाजार में राखी की दुकानें देर रात तक सजती हैंं। शाम को अंधेरा होने से पहले ही दुकानदार लाइटें जला लेते हैं ताकि उनका माल अधिक अच्छा दिखे। ऐसे में कई बार ग्राहक ठगा जाता है। क्योंकि लाइट मे जो चीज जैसी दिखती है वास्तव में वह वैसी नहीं होती। राखियों की चमक लाइट से अधिक बढ़ जाती है और इस प्रकार बाजार में घटिया माल भी ग्राहकों को चेप दिया जाता है। तो जब भी आप राखी खरीदने जाएं तो दिन में ही जाएं और शाम को जाएं तो उस लाइट की रोशनी से बाहर लाकर भी देखें। ताकि दुकानदार आपका फायदा नहीं उठा सके।

कितनी तरह की राखियां

पहले बाजार में राखियों के कुछ मॉडल ही मौजूद हुआ करते थे। आजकल राखियों को सेलिब्रिटीज और कार्टून करेक्टर्स भी जोड़ दिया गया है। इसके अलावा टीवी सीरीयल्स की नायिकाओं के आभूषणों से भी जोड़ दिया गया है। बाजार में ऐसी अनेक राखियां मौजूद हैं जिन्हें रक्षा बंधन के दिन हाथ पर और बाद में कान, गले या फिर बोरले की तरह माथे पर पहना जा सकता है। पहले जहां फोम और प्लास्टिक का उपयोग राखी बनाने में होता था वहीं आजकल जरी, गोटे, मैटल, सोने, चांदी, मोती, शंख, सीपी आदि का उपयोग भी राखी बनाने में होने लगा है। सीधी भाषा में कहूं तो अलवर शहर में ही करीब ४०,००० से अधिक राखियों के डिजायन बनाए जा रहे हैं।

एक हजार लोग सीधे जुड़े उद्योग से

अलवर शहर में राखी उद्योग स्थापित है। यह एक ऐसा उद्योग है जिसके लिए बड़े कारखाने की जरूरत नहीं। केवल स्टॉक के लिए जगह की जरूरत होती है। जो कि मकान में भी किया जा सकता है। अत: यह उद्योग घरों में भी चलाया जा सकता है और महिलाएं इसे चला सकती हैं। अलवर शहर में राखी उद्योग में ९० प्रतिशत महिलाएं ही जुड़ी हुई हैं। करीब एक हजार महिलाएं शहर में राखियां बना रही हैं।

कहां कहां भेजी जाती है अलवर से राखियां

अलवर शहर से राखियां अमेरिका, कनाड़ा, थाईलैंड, म्यांमार, जापान, इंग्लैंड सहित करीब २४ देशों में भेजी जाती हैं। निर्यात के लिए राखियां रक्षा बंधन से कई माह पहले ही बना ली जाती हैं। शहर में पूरे वर्षभर राखियां बनती हैं और मार्च के बाद ही निर्यात शुरू कर दिया जाता है। रक्षा बंधन अगस्त में आता है लेकिन तब तक निर्यात किया जा चुका होता है। फिर जुलाई माह से स्थानीय स्तर के दुकानदार थोक में राखी खरीदना शुरू करते हैं और रक्षा बंधन से एक सप्ताह पहले राखियों का बाजार सज जाता है।

रोजगार ने बदली तस्वीर

अलवर शहर में कई ऐसे मौहल्ले हैं जिन्हें कच्ची बस्ती कहा जाता है। पहले इन मौहल्लों में पुरुषों का काम केवल शराब पीकर उत्पात मचाना था। महिलाएं यदि कुछ कहती तो उनके साथ भी मारपिटाई के कारण शांतिभंग रहती थी। राखी उद्योग ने सबसे अच्छा काम यह किया कि महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराया। इससे हुआ यह कि महिलाएं आत्मनिर्भर होने लगी। महिलाएं ही नहीं बच्चे भी यहां घरों में राखी बनाते देखे जा सकते हैं। स्कूल से आने के बाद बच्चे खाना खाकर होमवक्र करते हैं और फिर इसके बाद लग जाते हैं माँ का हाथ बंटाने में। 
राखी बनाने पर पेमेंट गुुरूस के हिसाब से दिया जाता है। एक दर्जन में जहां १२ राखियां होती हैं वहीं १२ दर्जन का एक गुुरूस होता है। हालांकि इस उद्योग में रोजगार तो दिया लेकिन पैसा बहुत कम मिलता है। लेकिन घर पर यदि यह कार्य किया जाए तो बुरा नहीं है। घरों में उद्योग लगने से पुरुषों का उत्पात मचाना कम हो गया। उन्हें भी लगने लगा कि यदि वे उत्पात मचाएंगे तो काम हाथ से निकल जाएगा और भूखे मरने की नौबत आ सकती है। दूसरा लाभ यह मिला कि महिलाओं के हाथ में पैसा आने लगा। पहले वे अपने पति से घर की जरूररतों के लिए पैसे मांगती थी तो क्लेश होता था।
अब वे खुद घर चलाने जितना पैसा कमा रही हैं। इस पैसे वे अपनी पसंद की चीजें भी खरीद रही हैं और घर की तस्वीर भी बदल रही हैं। आज अलवर शहर में दिल्ली दरवाजा, कोली बस्ती, चमार पाड़ी, हिंदू पाड़ा, शिवाजी पार्क, साहब जोहड़ा सहित अनेक ऐसे मौहल्ले और कॉलोनियां हैं जहां घरों में राखियां बनाई जा रही हैं।

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