जितेन्द्रिय हैं जितेन्द्र सिंह
अलवर। अलवर राजपरिवार के मुकुटमणि भंवर जितेन्द्र सिंह के नाम से सब वाकिफ हैंए लेकिन इस नाम में जो दर्शन छिपा है मैं यहां उससे अवगत कराना चाहता हूं। जितेन्द्र सिंह में छोटी इ की मात्रा लगी हुई है। इसका अर्थ है इंद्रियों को जीतने वाला। अर्थात जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है ऐसा व्यक्ति। यही बात महावीर स्वामी के लिए भी कही जाती है। वे जिनेन्द्र कहलाते हैं। जिन् अर्थात् जीतने वाला। इंद्र का अर्थ यहां हमारी पांचों इंद्रियों से है।
यह बात उतनी ही सच है जितना की यह नाम। जन.जन के प्रिय भंवर जितेन्द्र सिंह इस नाम को सार्थक करते नजर आते हैं। इस बात को साबित करने के लिए मेरे पास अनेक उदाहरण हैं। यहां केवल एक उदाहरण से समझाना चाहता हूं। नगर निगम के चुनाव में मैने उनका यह गुण प्रत्यक्ष किया था। वार्ड ११ में जितेन्द्र सिंह अपने सिपहसालारों के साथ वार्ड पार्षद के प्रत्याशी के समर्थन में एक आम सभा करने आए थे। उनके नाम से ही काफी भीड़ जमा हो गई थी। जब जितेन्द्र सिंह वहां पहुंचे तो लोगों ने उनकी जय का उद्घोष कियाए लेकिन जितेन्द्र सिंह के चेहरे पर शांत भाव की अनुभूति थी। अधिक उत्साह कहीं नजर नहीं आया। हमारे शास्त्रों में यह सज्जनों का लक्षण बताया गया है कि अधिक उत्कर्षए प्रशंसा और धन प्राप्ति पर भी जो लोग सदा सम भाव बने रहते हैं वह सज्जन पुरुष होते हैं।
इसी के समर्थन में मैं उनका दूसरा पक्ष भी यहां प्रस्तुत करता हूं। जब यह सभा चांवड माता के मंदिर के पास चल रही थी तो दोनों तरफ से उनके प्रतिद्वंदियों के जुलूस आते दिखाई दिए। ढोल नंगाड़ों के साथ यह जुलूस निकाले जा रहे थे। ऐसे में उनकी सभा प्रभावित होनी ही थीए लेकिन यहां भी उनके चेहरे पर शांत भाव थेए जबकि अन्य प्रत्याशियों के चेहरों पर भाव निर्मल नहीं थे। वे उनकी सभा में भीड़ देखकर विचलित थे। ऊपर कही गई बात का दूसरा पक्ष यहां स्पष्ट कर दूं कि जहां पहले उदाहरण में जितेन्द्र सिंह जय.जयकार और अत्यधिक भीड़ देखकर भी शांतचित्त रहे वहीं विरोधियों को देखकर भी उनके चहरे के भाव परिवर्तित नहीं हुए। ऐसे में वैदिक ऋषियों की वही बात फिर साबित होती है कि सज्जन पुरुष अपकर्ष और उत्कर्ष दोनों स्थितियों में समभाव से जनकल्याण में रत रहते हैं। उन्हें कैसी भी परिस्थितियां अपने लक्ष्य से विचलित नहीं कर सकती। बाद में जब नगर निगम चुनाव के नतीजे आए तो दूसरी पार्टी पूर्ण बहुमत के बाद भी अपना बोर्ड नहीं बना पाई। चूंकी जितेन्द्र सिंह का उद्देश्य चुनाव लडऩा या जीतना नहीं था। वे चुनाव के दौरान उतार चढ़ाव के दौर में भी जनकल्याण की अपने मन में छिपी भावना से काम करते रहेए इसी कारण परिणाम विपरीत परिस्थितियों में भी उनके पक्ष में रहा।
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