Real Story जहरीला आंगन
बचपन में ही आग लगा दी। ऐसी भी क्या जल्दी थी। थोडा और रूक जाती तो शायद मैं भी कुछ बन जाती। यह नौबत नहीं आती। सपना रिक्शे में बैठी सजल नेत्रों से यही सब सोचकर अपनी मां को कोसती रही।
शादी को एक साल भी नहीं हुआ। ससुर रोज शराब पीकर आते और पहले सपना को फिर उसकी मां को गालियां देते। शादी का पहला साल था। सास-ससुर के व्यवहार ने सभी लाड-चाव को जहर में भिगो दिया था। सभी त्योहारों को मातम में बदल दिया था। मां कैसी भी हो, बेटी कैसे सहे।
पति यूं तो सरकारी नौकरी में था, लेकिन था पत्थर। पत्नी के प्रति कोई फर्ज नहीं उसका। आज भी वही हुआ।
शाम को ससुर शराब पीकर आंगन में आए और सपना पर गालियों की बौंछार कर दी। ये तो हरिया गाय है। यहां-वहां मुंह मारती फिरती है। इसकी मां के पैर में भी चक्कर है। वह भी इसी तरह दुनियाभर में डोलती रहती है।
मां के प्रति कहे ये शब्द सपना को तीर की तरह चुभे। बाहर ससुर आंगन से अपशब्दों की स्वयं रचित सोच की संस्कृति पोषित कर रहे थे, अंदर कमरे में बंद सपना अपना सामान समेट रही थी। जिस आंगन को नई नवेली दुल्हन सपना की पायल की छन-छन ध्वनि से खिल-खिलाना चाहिए था वह आंगन ससुर की मौजूदगी से जहरीला बन चुका था।
सहनशक्ति जब जवाब दे गई तो अपने 4 माह के बच्चे को गोदी में लेकर फुफकारती हुई बाहर आई।
हाथ में एक बैग, जिसमें खुद के और बच्चे के कपडे थे। मैं जा रही हूं। आप रहो यहां। यह घर आपको मुबारक। सपना हवा की तरह देहरी लांघ चुकी थी। वापस नहीं आने का मना बनाकर।
जल्दबाजी में यह भी भूल गई कि रिक्शे वाले को पैसे भी देने हैं। भूख अलग लगी थी। हाथ में पांच का सिक्का था। रस्ते में डांसरिये वाला दिखा तो बालमन से रहा नहीं गया। सपना खुद अभी 19 साल की थी। लाल-हरे डांसिरिये लिए और खा लिए।
इतने से पैसे में कुछ आ भी नहीं सकता था। मां के घर पहुंची। रिक्शे वाले ने पैसे मांगे। मां से लाकर देती हूं। बेटी को इस हाल में देख मां का कलेजा मुंह को आ गया। पति सरकारी नौकरी में।
ससुर भी सरकारी नौकरी से रिटायर्ड। संपन्न परिवार। बडा घर। लेकिन सपना खाली हाथ। मां ने रिक्शे वाले के पैसे चुकाए। बडबडाते हुए सपना के ससुराल वालों को खूब खरीखोटी सुनाई। अंदर आ बेटी। दोनों मां बेटी अंदर चली गई।
मोहल्ले में चर्चाएं गर्म होती रही। लेकिन सपना का चरित्र और व्यवहार उसकी ढाल बना था। अंगुली उठना तो दूर की बात।
ऐसे में संबल मिला, क्योंकि समाज की सोच ही चरित्र का चीर हरण करती है और यदि समाज की सोच सही है तो मधुसूदन की तरह चीर को इतना लंबा कर देती है कि हरण करने वाले के हाथ थक और गल कर गिर जाएं। यहां भी ऐसा ही हुआ।
जब छोटे बेटे की बहु घर छोड गई तो सास-ससुर के होश ठिकाने आते देर न लगी। अगले ही दिन सपना के पीहर पहुंचे। माफी मांगी, हील हुज्जत की। लेकिन सपना ऐसी मिट्टी की बनी थी कि जो सोच लिया उस पर डटी रही। सपना से नपे तुले सटीक सुसंस्कृत शब्दों में ससुराल वापस जाने से इनकार कर दिया।
पोते काु दुलार कर ससुर नीची गर्दन कर चले गए। सब कुछ खो चुके थे। अपना मान, मर्यादा, इज्जत। नशे ने पहले उनसे उनका विवेक छीना, फिर इज्जत और फिर जिंदगी।
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